दुर्गा पूजा उत्सव का इतिहास और उत्पत्ति History And Origin Of Durga Puja Festival
भगवती मां देवी की पूजा (दुर्गा पूजा), भारत के महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है। हिंदू धर्म का यह पूजा धार्मिक त्यौहार होने के अलावा पारंपरिक, संस्कृति और रीति-रिवाजों का उत्सव भी है। अनुष्ठानों में 9 दिन का व्रत और पूजा होता है । नवरात्र के चार दिनों-सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी-भारत और विदेशों में खास कर बंगाल में विशेष रूप से बहुत ही भव्यता के साथ मनाया जाता हैं। देवी की सवारी शेर का भी भक्ति के साथ पूजा किया जाता है।
पौराणिक कथा Mythology
दुर्गा पूजा हर साल हिंदू महीने अश्विन (सितंबर-अक्टूबर) में मनाया जाता है। यह व्रत और पूजा श्री राम चन्द्र जी द्वारा राक्षसो का राजा रावण के साथ युद्ध करने से पहले देवी का आह्वान करने के लिए किया गया था। वसंत ऋतु (फरवरी – मार्च) मे भी माता का पूजा के लिए नवरात्र मनाया जाता है लेकिल अश्विन (सितंबर-अक्टूबर) माह का पूजा परंपरागत दुर्गा पूजा से अलग होता है। यह पूजा श्री राम चन्द्र जी के ‘अकाल-बोद्ध’ के रूप में भी जाना जाता है। भगवान राम पहली बार ‘महिषासुर का हत्या करने वाली माता का पूजा 108 नीले कमल और 108 दीपक जलाकर किये थे।
दुर्गा पूजा की उत्पत्ति और इतिहास Origin and History of Durga Puja
ऐना माना जाता है कि देवी दुर्गा की पहली भव्य पूजा सन् 1500 के उत्तरार्ध में मनाना शुरू हुआ। इतिहास के अनुसार दीनाजपुर और मालदा (बंगाल) के निवासियों और ज़मीनदारों द्वारा बंगाल में पहली बार दुर्गा पूजा शुरू किया गया था। एक अन्य जानकारी के अनुसार, ताहरपुर के राजा कंचनारायण या नाडिया के भावनंद मजूमदार ने बंगाल में पहली बार शरद दुर्गा पूजा का आयोजन सन् 1606 मे किया था।
सामुहिक पूजा की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के हुगली में गुप्तीपाड़ा के बारह दोस्तों द्वारा किया गया। वे स्थानीय निवासियों से योगदान लेकर उनसे धन इकट्ठा करके सामुहिक रूप से सन् 1790 मे पूजा किया था। इस तरह के पूजा को बारो-यारी कहा गया। सामुहिक पूजा 1832 में कोलकाता में कासिमबाजार के राजा हरिनाथ ने कोलकाता मे शुरू किया। वे 1824 से 1831 तक मुर्शिदाबाद में अपने पैतृक घर पर दुर्गा पूजा का आयोजन किये था।
“बारो-यारी पूजा 1910 में सार्वजनिक या सामुदायिक पूजा का मार्ग प्रशस्त किया। सनातन धर्मोत्सहिणी सभा ने पूर्ण रूप से सार्वजनिक योगदान द्वारा, सार्वजनिक नियंत्रण और सार्वजनिक भागीदारी के साथ कोलकाता में बागबाजार में पहली बार समुदायिक पूजा का आयोजन किया। बंगाल का दुर्गा पूजा अब सार्वजनिक रूप से ही मनाया जाता है। “लोकगीत, लोक क्षेत्र और सिविल सोसाइटी में एमडी मुथुकुमारस्वामी और मौली कौशल लिखे है कि 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में समुदायिक दुर्गा पूजा की संस्था ने हिंदू बंगाली संस्कृति के विकास में बहुत योगदान दिया।
दुर्गा पूजा में ब्रिटिश भागीदारी British participation in Durga Puja
उच्च स्तरीय ब्रिटिश अधिकारी नियमित रूप से बंगालियों द्वारा आयोजित दुर्गा पूजा में भाग लेते थे। ब्रिटिश सैनिक भी सहयोग करते थे और प्रशंसा करते थे यहां तक कि देवी – देवताओं को नमन करते थे। दुर्गा पूजा का सबसे अद्भुत कार्य ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किया गया था। 1765 में इसने बंगाल की दीवानी प्राप्त करने पर अपने हिंदूओं को खुश करने के लिए राजनीतिक कार्य के रूप में पूजा की। कंपनी के ऑडिटर जनरल – जनरल चिप्स ने भी अपने बीरभूमि कार्यालय में दुर्गा पूजा का आयोजन किया था। वास्तव में, अंग्रेजों की पूर्ण आधिकारिक भागीदारी से दुर्गा पूजा में 1840 तक जारी रहा। इसके बाद सरकार ने इस तरह की भागीदारी पर प्रतिबंध लगा दिया था।
1911 में, ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरण के साथ, कई बंगाली ब्रिटिश सरकारी कार्यालयों में काम करने के लिए दिल्ली चले गए। उसके बाद दिल्ली में पहले बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया। दिल्ली मे 1910 मे पहले बार दुर्गा पूजा मनाया गया। वर्तमान में दिल्ली मे दुर्गा पूजा समिति द्वारा बंगाली सीनियर सेकेंडरी स्कूल, अलीपुर रोड, दिल्ली के लॉन में आयोजित किया जाता है।
प्रतिमा और पंडल का विकास
दुर्गा पूजा के दौरान पूजा के लिए देवी का पारंपरिक प्रतीक शास्त्रों में वर्णित चित्र के अनुरूप है। दुर्गा पूजा मे दुर्गा जी के मूर्ती के साथ कार्तिकेय जी, गणेश जी , सरस्वती जी और लक्ष्मी जी भी शामिल हैं। मिट्टी की संरचना करके सभी पांच देवताओं और देवियों के साथ प्रतिमा की पारंपरिक छवि को बनाया जाता है।
पहले मिट्टी से मुर्तियां बनती थी। लेकिन अब कहीं कहीं चांदी की भी मुर्तियां बनाई जाती है।
बांस और बल्ली से ढांचे तैयार करके रंगीन विशालकाय अस्थायी canopies और रंगीन कपड़े के साथ पंडाल बनाया जाता है। आधुनिक पंडाल कलात्मक और सजावटी होता हैं।